Saturday, June 2, 2012

दो शहरों के बीच

सड़को पर दोड़ते पहियों को देखा हमने,
कुछ निगाहें हम पर भी पड़ी ज़रूर।
आए तो थे कुछ वक़्त के लिए ही यहाँ,
मगर वो वक़्त मानो ठहर सा गया है ।

यहाँ मौसम का मिज़ाज कुछ कम बदलता है ।
उतार चढ़ाव के दौर से थोड़ा कम गुज़रता है ।
गर्मी के थपेड़ो की तो कमी महसूस नहीं होती,
पर कड़कड़ाती ठण्ड में रजाई का मज़ा खलता है ।

और जब में अपने घर की खिड़की से बहार झांकता हूँ,
तो मुझे दो शहर नज़र आते हैं ।
एक वो ,
जहाँ बड़ी-बड़ी इमारतें, आसमान को छू जाती हैं।
जहाँ लम्बी-लम्बी गाड़ियां, सड़को पर दोड़ती नज़र आती है ।
जहाँ दौलत की नुमाइश, कम कपड़े पहनकर की जाती है ,
और जहाँ हर ख़ुशी, पैमानों को टकराकर मनाई जाती है ।

दूसरा वो है,
जहाँ चंद सिक्को के लिए, जिंदगियां दांव में लग जाती है ।
जहाँ दो वक़्त की रोटी जुटाने में, ज़िन्दगी गुज़र जाती है।
जहाँ नुमाइश, कम कपड़े पहनने की विवशता में आती है,
और जहाँ हर ख़ुशी, रात को चैन की नींद में मिल जाती है ।

मैं, लक्ष्य, इन दो शेहेरों के बीच में खुद को तलाशता हूँ ,
अपनी बेबसी का चोला ओढ़े, अपने दिल को बहलाता हूँ ।

बस तज़ार कर, इस वक़्त के गुज़र जाने का,
मौसम के बदलने का, गर्मी के पिघल जाने का।
इंतज़ार कर, ये दो शहरों के आपस में मिल जाने का,
शायद फिर, कड़कड़ाती ठण्ड में रजाई का मज़ा लौट आएगा।

1 comment:

KZ said...

Nicely portrayed!!!